उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी जिलों के समान उत्तरकाशी भले ही आज विकास व समृद्धि की बाट जोह रहा हो, लेकिन यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह जनपद सांस्कृतिक रूप से सर्वाधिक विविधता वाला समृद्ध जनपद है। यहां के गीत मेले-थौळु, त्योहार व पकवान की परंपरायें हर क्षेत्र में बिल्कुल भिन्न हैं और यहां के निवासियों ने अपनी इस विरासत को संजो कर रखा भी है, परंतु इसमें सरकारों का कोई योगदान नहीं है। उल्टा राज्य बनने के बाद यहां से भी पलायन के कारण सांस्कृतिक विरासत को अत्यधिक हानि पहुंची है। भौगोलिक दृष्टि से तिब्बत व हिमाचल प्रदेश की सीमाओं से सटे होने से इन क्षेत्रों की संस्कृति की छाया भी उत्तरकाशी में स्पष्ट दिखायी देती है। ये प्रभाव इतना गहरा है कि तिब्बत व हिमाचल से जनपद में आकर बसे लोगों के गांवों में गंगा घाटी की बोली-भाषा व पहनावे का एक बेहतर घालमेल देखने को मिलता है, इसका उदाहरण है लोसर। चीन-तिब्बत सीमा पर बसे जादंूग गांव के मूल निवासी अब डुंडा व बगोरी गांव में बसे हुये हैं। ये लोग गंगा घाटी की संस्कृति व तिब्बती संस्कृति का बेहतर समायोजन कर लोसर पर्व का आयोजन करते हैं। ये लोग लोसर तिब्बती शैली में मनाते हैं जबकि देवी के डोली नृत्य के साथ गढ़वाली ढोल-दमाऊ की थाप पर रांसो व तांदी नृत्य करते हैं। इस तरह का सांस्कृतिक घालमेल देश व राज्य के अन्य हिस्सों में आयोजित होने वाले लोसर त्योहार से अपने आप को अलग स्थापित करता है। ऐसे ही बहुरंगी सांस्कृतिक विरासत का धनी है उत्तरकाशी जनपद।
तकरीबन 145 किमी0 लम्बाई व 90 किमी0 चौड़ाई क्षेत्र में फैले उत्तरकाशी जनपद की अधिकांश जनसंख्या गंगा(भागीरथी),यमुना,टौंस व पावर नदियों के किनारे बसी है एवं प्रत्येक नदी क्षेत्र में बसी सभ्यता अपनी बोली,गीत,नृत्य,खान-पान,पहनावा एवं परंपराओं में अत्यधिक भिन्नता लिये हुये है। गंगा के दोनों ओर बसे क्षेत्र टकनौर-बाड़ाहाट(गंगोत्री से बाड़ाहाट-उत्तरकाशी तक का भूभाग) व गंगाड़(उत्तरकाशी से टिहरी जनपद से लगी सीमा तक का क्षेत्र) में भी अनेकों भिन्नतायें है, जैसे टकनौर-बड़ाहाट क्षेत्र में महिलायें,धोती,पंखी,पठेड़ा/पागड़ा(महिलाओं द्वारा कमर पर बांधे जाने वाला लाल रंग का एक ऊनी वस्त्र) सर पर सांफा(कहीं-कहीं सफेद तो कहीं अन्य रंग से सर ढकने के प्रयोग में लाये जाने वाला कपड़ा) पहनती हैं। वहीं गंगाड में पंखी व पठेड़ा का रिवाज नहीं है, यहां धोती पहनी जाती है। टकनौर में त्योहार के दौरान दयूड़ा(चीणा व मक्के के आटे के पेस्ट के गोले बनाकर पत्ते के उपर रख भाप में पकाते हैं) एक प्रमुख पकवान है, तो गंगाड में लजीज पकवान घेंजा(चावल के आटे के पेस्ट को कटोरी में रख भाप में पकाते हैं) बड़े चाव से खाया जाता है। टकनौर-बाड़ाहाट में सोमेश्वर देवता, कण्डार देवता व नाग देवता की पूजा होती है। कंडार देवता के नाम से बाड़ाहाट का थोळु(माघ मेला), सोमेश्वर देवता के मेले प्रत्येक अगस्त-सितम्बर के माह में लगते हैं, जिन्हें ‘सेलकु‘ कहा जाता है, वहीं गंगाड में नागदेवता(श्रीकृष्ण) की पूजा अधिक होती है। यहां बैसाख माह में क्षेत्र के प्रत्येक गांव में मेलों की परंपरा है, वहीं टकनौर-बाड़ाहाट में रांसो नृत्य प्रमुख हैं, तो गंगाड में छोपती,मण्डाण प्रमुखता से किये जाते हैं। टकनौर-बाड़ाहाट में पांडव नृत्यों की परंपरा लगभग प्रत्येक गंाव में है लेकिन गंगाड़ क्षेत्र में केवल दूरस्थ गांवों में कहीं-कहीं यह परंपरा बची है।
डांडू क्या फूल फुलाला
फुलाला ब्रहमी कौंळ
ई फूला कै सोभला
ई देवतों सोभा (रांसो नृत्य गीत)
अखोडू क डोका पिरूलि चा पीजा पाणी
छोपती त लांदू पिरूलि चा पीजा पाणी
हम अजाण लोक पिरूलि चा पीजा पाणी (छोपती गीत)
उत्तरकाशी जनपद का यमुना नदी के दोनों ओर का क्षेत्र एवं रवांई की जीवन रेखा कमल नदी के दोनों ओर बसा रामा सिंराई, कमल सिंराई, पुरोला का क्षेत्र रवांई के नाम से जाना जाता है। यह सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। अपनी परंपराओं के प्रति यहां के लोग बेहद संजीदा हैं। यह भी महत्वपूर्ण है,कि नई पीढ़ी पर नये जमाने का प्रभाव भी दिखाई दे रहा है, फिर भी यहां के निवासी अपनी परंपराओं से जुड़े हैं। इस क्षेत्र में तंादी, पांडव नृत्यों की समृद्ध परंपरा है। यहां मुख्य रूप से मंा यमुना, बौखनाग देवता, भगवान रघुनाथ, भगवान शिव एवं देवी की पूजा की जाती है। यदि मेलों की बात करें तो यहां बारह महीनों मेले-त्योहारों की परंपरा है। जैसे- मंगसीर अमावस्या को बनाला देवलांग, कुपड़ा गीठ में सावन में नाग पंचमी मेला, भांदो पाली गांव की अथड(भेड़ों का मेला), ज्येष्ठ माह में सरनौल में रेणुका मां का मेला, डांडा-देवराणा मेला सावन माह में, मोल्टाडी जात्रा, ऐसे अनेकों मेलों की श्रृंखला सतत् चलती रहती है। यहां एक लोक गीत प्रसिद्ध है-
कसो बढिया रिवाज हमारा मुल्क
बारा महीनों का बारा त्योहार होला हमारा मुल्क
यहां की बोली गंगा घाटी क्षेत्र की गढ़वाली बोली से एकदम भिन्न है, जो कि जौनसारी व गढ़वाली की मिश्रण है। वहीं पहनावे में महिलायें घाघरा,चोली,सदरी व ढांटू पहनती है, तो पुरूष कुर्ता,पजामा,ऊनी कोट व ठण्डे इलाकों में ऊनी पजामा(सोंतण) पहनते हैं। वैसे अब समय के साथ पहनावा भी नये जमाने का हो गया है। चूड़ा(लाल चावल के), सिडा(भीगे चावल के पेस्ट को कटोरी में रख भाप में पकाते हैं), साकूली(भीगे चावल की लेई को थाली में फैलाकर भाप में पकाते हैं), लाल चवाल का भात यहां के प्रमुख पकवान हैं। यहां के नृत्यों में तांदी नृत्य प्रमुख है व पाण्डव नृत्यों की भी परंपरा है। रांसो नृत्यों की भांति तांदि नृत्य में भी मानव श्रृंखला बनायी जाती है, जिसमें एक श्रृंखला में पुरूष व एक में महिलायें नृत्य करती हैं। परंतु तांदी नृत्य में नृत्य शैलि, पद संचालन, भाव-भगिमायें रांसों से एक दम भिन्न हैं। ढोल की ताल भी दोनों नृत्यों में बिल्कुल भिन्न है। रवांई क्षेत्र में देव जात्राओं की परंपरा है, जिसमें पूरी रात भर महिला व पुरूष,युवक व युवतियों द्वारा तांदी नृत्य पूरे उत्साह के साथ किये जाते हैं।
ले माछी मार्यो कीत
जब आली समोदरा तब लगला गीत
धड़्या चैंर्या द्यौ छुलाई तु काइ ना आयी थि रे
घुण्डु मती की घाघरी थई मैं तब ना आई थु रे
(तांदी गीत)
जनपद का अगला क्षेत्र टौंस नदी के दोनांे ओर बसा क्षेत्र फते पर्वत से त्यूणी तक फैला इलाका है, जिसमें मोरी, नैटवाड,़जखोल,सांकरी,दोणी,भीतरी,ओसला,गंगाड आदि क्षेत्र आते हंै। यहां का कुछ भाग हिमाचल प्रदेश की सीमा से भी लगा है इसीलिए यहां हिमाचल की संस्कृति का असर भी स्पष्ट दीखता है। इस क्षेत्र के पुरूष कोट, ऊनी पजामा, सर पर ऊन की बनी गोल टोपी पहनते तो महिलायें ऊन से बनी विशेष प्रकार की सदरी, कोट, कमर पर पीछे च्वेंठी बांधती हैं व ऊनी पजामा पहनती है तथा सर पर टोपी व ढांटू पहनते हैं। हिमाचली पहनावे का असर यह है कि यहां के निवासी हरे व लाल पट्टे वाली हिमाचली टोपीभी पहनते हैं। यहां के तीज त्योहारों में जागरा, मरोज मुख्य हैं तथा यहां के देवी देवताओं में महाभारत के दोनों पांडव व कौरव पक्ष के दोनों योद्धाओं कर्ण, विशासन, दुर्योध्यन के अलावा पोखू महाराज को भी यहां के लोग आराध्य मानते हैं। जिसके पूजन में बलि प्रथा का रिवाज है। सूखी मीट, शिकार करना व खेतों में बुवाई व कटाई पूरे गांव के लोग एक साथ करते हैं जिसके लिये बकायदा मुहूर्त निकाला जाता है। कोदे मंडुवे की शराब तैयार की जाती है छोडे
कनी होली मेरी गाड की घटूडी
गौ नाज की सार कनी होली मेरी मना की पीयांरी
हे भग्वान खुद लगी भारी मामा रोणीया
भेरा चरिया बाखिरा उपला थातीरा
मामा रोणिया तू भेरा चरौंना म्वी काटू पातिरा (छूड़ा गीत)

मेरू गाजिरू बौणा ऐ………कुंआरू………
रूपिण सुपिण नौंदी बौंदी आपूणा भावे
घुमि औंदी डांडी कांठी यमुना के छाले (छूड़ा गीत)

पावर(पावर नदी का मूल नाम पबर नदी है लेकिन वर्तमान मे बोल-चाल मे लोग इसे पावर नदी बोलते हैं) नदी के दोनों ओर बसा बंगाण क्षेत्र त्यूणी से आराकोट,टिकोची,चींवा,गोकुल,माकुड़ी,नूराणू,भूटाणू आदि क्षेत्रों में फैला है। यह क्षेत्र बंगाण के नाम से भी जाना जाता है, यहां की संस्कृति पर हिमाचल का सर्वाधिक प्रभाव है, क्योंकि यह क्षेत्र बिल्कुल हिमाचल से सटा हुआ है। यहां का पहनाव,बोली-भाषा,रिश्ते-नाते सब हिमाचल से जुड़े हैं।यहां महिलायें कुर्ता, पाइजामा, सदरी(वास्कट),व सर पर ढांटू पहनती हैं पुरूषों का पहनावा कुर्ता, पाइजामा, कोट व सर पर बुशहरी टोपी(गोल टोपी जिस पर हरी पट्टी लगी होती है ) है यहां मार्च अप्रैल के माह में यहां का प्रमुख त्यौहार बिस्सू मनाया जाता है। जिसमें सोमेश्वर देवता की पूजा की जाती है बिस्सू इसलिये विलक्षण परंपरा है कि क्योंकि इसमें हिमालय के ढोडा नुत्य की भांति इसमें भी धनुष बाण के साथ युद्ध किया जाता है। जो कि उत्तरकाशी के अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं होता है। चार भाई महासू इनका प्रमुख आराध्य देवता है तथा जुलाई-अगस्त माह में यहां के लगभग प्रत्येक गांव में देव-जात्रा होती है। जिनमें हनोल महासू देवता के प्रांगण में होने वाली जात्रा प्रमुख है। इसमें स्त्री पुरूष सभी रातभर हारूल व नाटियां लगाते हैं।इसके अतिरिक्त बंगाण के निवासी कौल महाराज की भी पूजा करते हैं मेहमानों को अस्का(चावल के पेस्ट को मिट्टी हांडी में आग पर पकाया जाता है),सिडपू (पीसे चावल की रोटी जिसमें पोस्त के दानों को का प्रयोग किया जाता है ) भी बडे़ आदर के साथ परोसा जाता है। इनका एक अन्य भोजन मकोज भी है, अतिथियों के विशेष आदर के लिये यह क्षेत्र विशेष रूप से जाना जाता है।

नेडे संग्रांदि चयेते जूडे बिस्सू कू त्योहारे
सिंगूणी खरसूंणा क्यारी कै दिल ऐ जाये बांठिणी (छोपती गीत)

मूडे मूडे मूडाई बई कैडी मूडाई
तेरू सूणी देवा बई हारूल गाई
चार गाण महासू राजा चारी लो भाई
सूना लौ छातिरो बई चांदीरा ढोला (हारूल गीत)

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